जगदीप धनखड़: संविधान की प्रस्तावना को बदला नहीं जा सकता, आपातकाल लोकतंत्र पर काला धब्बा

नेशनल डेस्क, श्रेया पांडेय |
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का बड़ा बयान: 'संविधान की प्रस्तावना को बदला नहीं जा सकता', आपातकाल को बताया लोकतंत्र पर काला धब्बा
भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण बयान देकर देशभर में राजनीतिक और संवैधानिक चर्चाओं को नई दिशा दी है। उन्होंने कहा कि भारत के संविधान की प्रस्तावना (Preamble) को बदला नहीं जा सकता और यह देश के लोकतांत्रिक ढांचे की आत्मा है। उनके इस बयान को संविधान की स्थायित्वता और लोकतंत्र की मूल भावना की सुरक्षा की दिशा में एक सशक्त संदेश के रूप में देखा जा रहा है। साथ ही उन्होंने 1975 में लगाए गए आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास पर एक "काला धब्बा" बताया।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने यह बयान एक सार्वजनिक कार्यक्रम में दिया, जहां उन्होंने कहा कि भारत का संविधान किसी भी लोकतंत्र के लिए एक पवित्र ग्रंथ की तरह है, और उसकी प्रस्तावना न केवल उसके उद्देश्य और मूल्यों को दर्शाती है, बल्कि यह संविधान की आत्मा भी है। उन्होंने दो टूक कहा कि प्रस्तावना को बदला नहीं जा सकता, और इसपर किसी भी तरह का छेड़छाड़ न केवल असंवैधानिक है, बल्कि यह देश की लोकतांत्रिक नींव पर हमला भी है।
अपने संबोधन में उपराष्ट्रपति ने 25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल की भी कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि वह समय भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय था, जब देश की जनता के मौलिक अधिकारों को रौंद दिया गया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनी गई, और न्यायपालिका तक दबाव में थी। उन्होंने कहा कि ऐसे प्रयास कभी दोहराए नहीं जाने चाहिए और हमें इतिहास से सीख लेते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करनी चाहिए।
धनखड़ ने यह भी कहा कि आज के समय में जब कुछ तत्व संविधान की मूल भावना को बदलने की बात करते हैं, तब यह आवश्यक हो जाता है कि संविधान की प्रस्तावना की अमिटता को दोहराया जाए। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि प्रस्तावना संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है और इसके मूल सिद्धांत जैसे कि न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को कमजोर करने की कोई भी कोशिश संविधान के साथ धोखा मानी जाएगी।
उपराष्ट्रपति का यह बयान उस समय आया है जब देश में विभिन्न राजनीतिक दलों और संगठनों के बीच संविधान और उसके मूलभूत सिद्धांतों को लेकर बहस तेज हो गई है। कई बार यह मांग उठी है कि प्रस्तावना में कुछ शब्दों को बदला जाए या हटाया जाए, लेकिन इस मुद्दे पर उपराष्ट्रपति के स्पष्ट रुख ने यह संदेश दिया है कि संविधान की आत्मा से कोई छेड़छाड़ स्वीकार्य नहीं होगी।
धनखड़ के इस बयान को संवैधानिक मूल्यों की दृढ़ता और लोकतंत्र की सुरक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के रूप में देखा जा रहा है। उनके इस बयान ने न केवल राजनीतिक हलकों में बहस को जन्म दिया है, बल्कि आम जनता के बीच भी संविधान की महत्ता और उसकी प्रस्तावना के स्थायित्व पर विचार को मजबूती दी है।