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दिल्ली का लाल किला हो रहा बदरंग

राष्ट्रीय डेस्क, आर्या कुमारी |

दिल्ली का ऐतिहासिक लाल किला, जिसे 17वीं सदी में मुगल बादशाह शाहजहां ने बनवाया था, आज प्रदूषण की मार झेल रहा है। इसकी दीवारों पर काली परत जमने लगी है, जो न केवल इसकी सुंदरता बल्कि संरचनात्मक मजबूती के लिए भी खतरा बन चुकी है।

भारत की धरोहर लाल किला, जिसकी दीवारें कभी शौर्य का प्रतीक थीं, अब जहरीली हवा की चपेट में है। एक हालिया शोध में सामने आया है कि दिल्ली का प्रदूषण धीरे-धीरे इस इमारत को नुकसान पहुँचा रहा है।

प्रदूषण से बदल रहा लाल किले का रंग

लाल किला, जो 17वीं सदी में शाहजहां की देन है, अब अपनी असली पहचान खोने के कगार पर है। भारतीय और इतालवी वैज्ञानिकों के संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि वायु प्रदूषण की वजह से इसकी लाल बलुआ पत्थर की सतह पर काली परतें (black crusts) बन रही हैं। ये परतें न केवल रंग-रूप को फीका कर रही हैं, बल्कि इसकी मजबूती के लिए भी गंभीर खतरा पैदा कर रही हैं।

यह अध्ययन जून में प्रकाशित हुआ। इसमें 2021 से 2023 तक की वायु गुणवत्ता का आकलन किया गया। निष्कर्ष में पाया गया कि दिल्ली में PM 2.5 का स्तर राष्ट्रीय मानक से ढाई गुना अधिक है और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO2) भी सामान्य से ऊपर है, जो पत्थर को तेजी से क्षतिग्रस्त कर रहा है।

काली परत में क्या मिला?

वैज्ञानिकों ने किले के हिस्सों—जाफर महल, मोती मस्जिद और दिल्ली गेट से नमूने इकट्ठे किए। जांच में पता चला कि ये परतें जिप्सम, बसानाइट और वेडेलाइट से बनी हैं। इनमें सीसा, जस्ता, तांबा और क्रोमियम जैसी भारी धातुएँ भी पाई गईं, जिनका स्रोत वाहनों का धुआँ, सीमेंट फैक्ट्रियाँ और निर्माण गतिविधियाँ हैं।

विशेषज्ञों ने बताया कि इन परतों की मोटाई कुछ जगहों पर 0.05 से 0.5 मिलीमीटर तक पहुँच गई है, खासकर उन हिस्सों पर जो ट्रैफिक वाले क्षेत्रों की ओर हैं। ये परतें पत्थर से इतनी मजबूती से चिपकी हैं कि सतह पर दरारें आने लगी हैं और पत्थर के टूटने का खतरा है, जिससे किले की नक्काशी भी क्षतिग्रस्त हो रही है।

संरक्षण की ज़रूरत

इस अध्ययन में आईआईटी रुड़की, आईआईटी कानपुर, वेनिस विश्वविद्यालय और एएसआई के विशेषज्ञ शामिल थे। यह शोध भारत के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग और इटली के विदेश मंत्रालय की साझेदारी से किया गया। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह पहली बार है जब लाल किले पर वायु प्रदूषण के असर की विस्तृत जांच हुई है। इसके ज़रिये अन्य ऐतिहासिक धरोहरों की सुरक्षा के लिए भी ठोस कदम उठाए जा सकते हैं। यह हमें याद दिलाता है कि यदि पर्यावरण की रक्षा नहीं हुई, तो हमारी सांस्कृतिक धरोहरें भी खतरे में पड़ जाएँगी।