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नेशनल डेस्क, वेरोनिका राय |
काशी के संत समाज और कथावाचक मोरारी बापू के बीच विवाद गहराता जा रहा है। हाल ही में मोरारी बापू द्वारा गोस्वामी तुलसीदास और रामचरितमानस को लेकर की गई कथित टिप्पणी को लेकर संतों में भारी आक्रोश है। संत समाज ने इसे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला बताते हुए बापू का विरोध शुरू कर दिया है। मोरारी बापू ने माफी तो मांग ली है, लेकिन संतों ने इसे "औपचारिक" बताते हुए खारिज कर दिया है और अब विरोध को और तेज करने की योजना बनाई जा रही है।
प्रसिद्ध रामकथा वाचक मोरारी बापू ने अपनी एक कथा के दौरान रामचरितमानस की कुछ पंक्तियों की आधुनिक संदर्भ में व्याख्या की थी। यह व्याख्या सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुई और संत समाज तक पहुंची। संतों का कहना है कि यह व्याख्या तुलसीदास जी के मूल भावों के विपरीत है और इससे उनकी गरिमा को ठेस पहुंची है।
काशी विद्वत परिषद, अखाड़ा परिषद, और कई प्रमुख संत-महंतों ने मोरारी बापू की टिप्पणी की निंदा की है। काशी के प्रमुख संत महंत बालक दास ने कहा,
> "बापू ने तुलसीदास जैसे महान संत को संदिग्ध भाव में प्रस्तुत किया, यह पूरी सनातन परंपरा का अपमान है।"
मोरारी बापू ने सोशल मीडिया और अपने मंच से माफी मांगते हुए कहा था कि उनका इरादा किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं था और वे तुलसीदास जी का आदर करते हैं। इसके बावजूद संतों ने इसे स्वीकार नहीं किया। उनका कहना है कि जब तक बापू सार्वजनिक मंच से संतों की उपस्थिति में क्षमा नहीं मांगते और अपनी गलती को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं करते, तब तक विरोध समाप्त नहीं होगा।
संत समाज ने तय किया है कि मोरारी बापू का काशी में बहिष्कार किया जाएगा। उनके कथाओं, आयोजनों और प्रवचनों का विरोध किया जाएगा। साथ ही, 21 जून को ‘सनातन संस्कृति रक्षा यात्रा’ आयोजित की जाएगी, जिसमें देशभर के संत तुलसीदास और रामचरितमानस की मर्यादा की रक्षा हेतु एकजुट होकर प्रदर्शन करेंगे।
काशी विद्वत परिषद के महामंत्री आचार्य शंकर दत्त त्रिपाठी ने कहा: "यह केवल मोरारी बापू का विरोध नहीं, यह हमारी परंपराओं और धर्मग्रंथों की रक्षा का प्रयास है।"
मोरारी बापू की प्रतिक्रिया
फिलहाल मोरारी बापू ने माफीनामे के बाद कोई नई प्रतिक्रिया नहीं दी है। उनका पिछला बयान सोशल मीडिया पर वायरल है जिसमें उन्होंने कहा था कि वे तुलसीदास जी और रामचरितमानस का अपार सम्मान करते हैं।
काशी में मोरारी बापू के कथनों को लेकर मचे इस बवाल ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या करते समय वक्ताओं को कितनी सतर्कता बरतनी चाहिए। यह विवाद केवल एक व्यक्ति विशेष का नहीं, बल्कि परंपरा और भावनाओं की रक्षा से जुड़ा बड़ा मुद्दा बन गया है, जिस पर पूरे देश के संत समाज की निगाहें टिकी हुई हैं।