
विदेश डेस्क, मुस्कान कुमारी |
स्टॉकहोम: दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कारों की घोषणा का सिलसिला शुरू हो गया है। 2025 के नोबेल पुरस्कार में चिकित्सा या फिजियोलॉजी श्रेणी का पहला सम्मान अमेरिकी वैज्ञानिकों मैरी ई. ब्रंकाउ और फ्रेड राम्सडेल तथा जापानी वैज्ञानिक शिमोन सकागुची को प्रदान किया गया है। इनकी खोज ने प्रतिरक्षा प्रणाली के रहस्यों को उजागर किया है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए एक नई क्रांति का वादा करती है। यह खोज रोग प्रतिरोधक क्षमता को नियंत्रित करने का आधार बनेगी, जिससे ऑटोइम्यून बीमारियों और कैंसर जैसी जानलेवा चुनौतियों से लड़ने में मदद मिलेगी।
करोलिंस्का इंस्टीट्यूट के नोबेल असेंबली ने सोमवार को यह घोषणा की, जो नोबेल सप्ताह की शुरुआत है। पुरस्कार की राशि 11 मिलियन स्वीडिश क्रोना (लगभग 1.2 मिलियन डॉलर) है, जिसमें स्वर्ण पदक और डिप्लोमा भी शामिल है। यह खोज 'पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस' पर आधारित है, जो शरीर को अपनी ही कोशिकाओं पर हमला करने से बचाती है। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे नई थेरेपी विकसित होंगी, जो लाखों मरीजों की जिंदगी बचा सकती हैं।
प्रतिरक्षा प्रणाली का 'शांतिदूत' खोजा: टी-सेल्स की भूमिका जो शरीर को स्वयं से युद्ध से बचाती है
हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता एक सैनिक सेना की तरह है – वायरस और बैक्टीरिया से लड़ने में माहिर, लेकिन कभी-कभी यह अपनी ही कोशिकाओं पर हमला कर देती है। इससे डायबिटीज, रूमेटॉइड आर्थराइटिस जैसी ऑटोइम्यून बीमारियां जन्म लेती हैं। इसी समस्या का समाधान इन तीन वैज्ञानिकों ने ढूंढा। 1990 के दशक में, जब अधिकांश शोधकर्ता केंद्रीय इम्यून टॉलरेंस पर केंद्रित थे, सकागुची ने एक नई श्रेणी की टी-कोशिकाओं की पहचान की – रेगुलेटरी टी-सेल्स। ये कोशिकाएं हानिकारक टी-कोशिकाओं को दबाती हैं, जिससे शरीर में संतुलन बना रहता है।
सकागुची, जो जापान के ओसाका विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, ने 1980 के दशक में प्रयोग शुरू किए। उन्होंने चूहों पर टेस्ट कर पाया कि ये विशेष कोशिकाएं इम्यून सिस्टम को 'शांत' रखती हैं। लेकिन दुनिया को यकीन दिलाना आसान नहीं था। दो दशकों तक संशय बरकरार रहा, जब तक ब्रंकाउ और राम्सडेल ने अमेरिका में 'स्कर्फी' म्यूटेशन की खोज नहीं की। यह जेनेटिक दोष रेगुलेटरी टी-सेल्स को प्रभावित करता है, जिससे चूहों में ऑटोइम्यून विकार हो जाते हैं। इस खोज ने सकागुची के सिद्धांत को मजबूत आधार दिया।
ब्रंकाउ, जो फ्लोरिडा के जैक्सन लेबोरेटरी में काम कर रही थीं, ने म्यूटेंट चूहों के अध्ययन से साबित किया कि बिना इन कोशिकाओं के शरीर स्वयं पर हमला करने लगता है। वहीं, राम्सडेल ने फॉक्सपी3 जीन की भूमिका उजागर की, जो इन कोशिकाओं का 'मास्टर स्विच' है। इन खोजों ने वैज्ञानिक जगत में हलचल मचा दी। नोबेल समिति के महासचिव थॉमस पर्लमैन ने कहा, "यह खोज इम्यून सिस्टम की जटिलता को समझने का नया द्वार खोलती है।"
कैंसर और एलोपेशिया एरियाटा से लड़ाई में नया हथियार: 200 से अधिक क्लिनिकल ट्रायल चल रहे
यह पुरस्कार केवल सैद्धांतिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक क्रांति का प्रतीक है। रेगुलेटरी टी-सेल्स पर आधारित थेरेपी कैंसर इम्यूनोथेरेपी का आधार बन रही हैं। इन कोशिकाओं को नियंत्रित कर ट्यूमर कोशिकाओं पर हमला तेज किया जा सकता है, बिना स्वस्थ ऊतकों को नुकसान पहुंचाए। अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने पहले ही कुछ ट्रायल्स को मंजूरी दी है।
ऑटोइम्यून रोगों में भी उम्मीद जगी है। जैसे, मल्टीपल स्क्लेरोसिस या ल्यूपस जैसी बीमारियों में ये कोशिकाएं दवाओं का लक्ष्य बन सकती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, ऑटोइम्यून विकारों से प्रभावित लोग दुनिया भर में 5 करोड़ से अधिक हैं। इन वैज्ञानिकों की खोज से नई दवाएं विकसित हो रही हैं, जो पारंपरिक स्टेरॉयड्स से कहीं बेहतर होंगी। जापान में सकागुची ने कहा, "यह पुरस्कार मेरे दशकों के संघर्ष का फल है। अब यह ज्ञान मानवता की सेवा करेगा।"
अमेरिका में राम्सडेल, जो अब बायोलीड कंपनी में काम करते हैं, ने अपनी टीम के साथ 100 से अधिक पेटेंट दर्ज किए हैं। ब्रंकाउ की खोज ने बाल झड़ने की बीमारी एलोपेशिया एरियाटा के इलाज में भी प्रगति की है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अगले पांच वर्षों में बाजार में पहली व्यावसायिक दवा आ सकती है।
नोबेल की विरासत: अल्फ्रेड नोबेल से प्रेरित मानवता की सेवा
नोबेल पुरस्कार की यह श्रृंखला स्वीडिश आविष्कारक अल्फ्रेड नोबेल की इच्छा से शुरू हुई। 1895 में उनके वसीयतनामा में लिखा था कि उनकी संपत्ति उन लोगों को दिए जाए जो मानवता के लिए सबसे बड़ा लाभ पहुंचाएं। नोबेल, जिन्हें डायनामाइट के आविष्कारक के रूप में जाना जाता है, ने अपनी 'मृत्यु के व्यापारी' वाली छवि को बदलने के लिए यह कदम उठाया। 1901 से शुरू हुए ये पुरस्कार आज विज्ञान, साहित्य, शांति और अर्थशास्त्र तक फैले हैं।
2025 में चिकित्सा पुरस्कार के बाद फिजिक्स (7 अक्टूबर), केमिस्ट्री (8 अक्टूबर), साहित्य (9 अक्टूबर), शांति (10 अक्टूबर) और आर्थिक विज्ञान (11 अक्टूबर) की घोषणाएं होंगी। पुरस्कार वितरण 10 दिसंबर को स्टॉकहोम और ओस्लो में होगा। अब तक 1000 से अधिक व्यक्ति और संगठन सम्मानित हो चुके हैं, जिनमें 28 संगठन शामिल हैं।
वैश्विक उत्साह: भारत में भी चर्चा, चिकित्सा अनुसंधान को नई दिशा
दुनिया भर में यह खबर सुर्खियां बटोर रही है। जापान में सकागुची को हीरो की तरह स्वागत हो रहा है, जबकि अमेरिका में ब्रंकाउ और राम्सडेल की उपलब्धि पर शोध संस्थानों में जश्न का माहौल है। भारत जैसे विकासशील देशों में यह खोज विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जहां ऑटोइम्यून रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने कहा कि यह खोज स्थानीय वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा स्रोत बनेगी।
नोबेल समिति ने जोर दिया कि यह खोज 30 वर्षों के सहयोग का परिणाम है। सकागुची ने 1985 में पहला प्रयोग किया, लेकिन प्रमाण की प्रतीक्षा 2000 के दशक तक चली। ब्रंकाउ-राम्सडेल की 1990 के प्रयोग ने पहेली के टुकड़े जोड़े। आज, 200 से अधिक क्लिनिकल ट्रायल इन कोशिकाओं पर चल रहे हैं, जो कैंसर वैक्सीन से लेकर अंग प्रत्यारोपण की अस्वीकृति रोकने तक का वादा करते हैं।
भविष्य की संभावनाएं: इम्यूनोथेरेपी का युग शुरू
यह पुरस्कार इम्यूनोलॉजी के क्षेत्र में एक मील का पत्थर है। पारंपरिक दवाएं इम्यून सिस्टम को पूरी तरह दबाती हैं, जिससे संक्रमण का खतरा बढ़ता है। लेकिन रेगुलेटरी टी-सेल्स पर फोकस से सटीक उपचार संभव हो जाएगा। उदाहरणस्वरूप, कैंसर में ये कोशिकाएं ट्यूमर को छिपने से रोकेंगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगले दशक में इससे जुड़ी 50 नई दवाएं बाजार में आ सकती हैं।
शिमोन सकागुची ने कहा, "हमने प्रकृति के संतुलन को समझा, अब इसे मानव जीवन में उतारना है।" ब्रंकाउ ने जोड़ा, "यह खोज उन मरीजों के लिए है जो रोज जंग लड़ते हैं।" राम्सडेल ने उम्मीद जताई कि जल्द ही व्यावसायिक सफलता मिलेगी।
नोबेल 2025 का यह पहला पुरस्कार पहले ही वैश्विक स्वास्थ्य चर्चा का केंद्र बन चुका है। बाकी श्रेणियों पर नजरें टिकी हैं, लेकिन चिकित्सा का यह सम्मान मानवता के लिए एक नई उम्मीद जगाता है।