
विदेश डेस्क, श्रेया पांडेय |
ईरान और इजरायल के बीच बढ़ते तनाव का असर केवल मध्य‑पूर्व तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि इसके गंभीर प्रभाव भारत समेत तमाम तेल आयातक देशों पर भी दिखाई देने लगे हैं। वैश्विक बाजार में कच्चे तेल (क्रूड ऑयल) की कीमतें पिछले 48 घंटों में 7% तक बढ़ गई हैं, जिससे भारत पर आर्थिक दबाव साफ नजर आने लगा है।
भारत अपनी तेल जरूरतों का लगभग 85% आयात करता है और इसका बड़ा हिस्सा ईरान, इराक, सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों से आता है। मौजूदा हालात में हॉर्मुज जलडमरूमध्य जैसे संवेदनशील मार्गों से तेल की आपूर्ति बाधित होने की आशंका बढ़ गई है। यह मार्ग विश्व के लगभग एक-तिहाई समुद्री कच्चे तेल का ट्रांजिट रूट है।
विशेषज्ञों का कहना है कि यदि यह स्थिति लंबी चलती है तो भारत को दोहरी मार झेलनी पड़ सकती है — एक ओर आयात बिल में बढ़ोतरी और दूसरी ओर घरेलू महंगाई में उछाल। इसका असर प्रत्यक्ष रूप से आम जनता पर पड़ेगा, क्योंकि पेट्रोल-डीजल, गैस, परिवहन और खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ सकती हैं।
सरकारी सूत्रों ने संकेत दिए हैं कि केंद्र सरकार स्थिति पर लगातार निगरानी बनाए हुए है। पेट्रोलियम मंत्रालय और रिज़र्व बैंक के बीच समन्वय बैठकों का दौर चल रहा है ताकि वित्तीय नीतियों को समय पर अनुकूल बनाया जा सके। यदि तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर जाती हैं, तो यह भारत के चालू खाता घाटे (CAD) और रुपये के मूल्य पर दबाव डाल सकता है।
इस बीच, सरकार वैकल्पिक आपूर्ति स्रोतों की तलाश में जुटी है। रूस, ब्राजील और अमेरिका से तेल आयात बढ़ाने पर विचार किया जा रहा है। ऊर्जा विशेषज्ञों के मुताबिक, दीर्घकालिक समाधान के तौर पर भारत को ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में गंभीर प्रयास करने होंगे।
ईरान‑इजरायल युद्ध की आशंका केवल तेल तक सीमित नहीं है। यह भारत की पश्चिम एशिया में फैली डायस्पोरा, व्यापारिक संबंध और सामरिक हितों को भी प्रभावित कर सकती है। यदि हालात नियंत्रण से बाहर होते हैं, तो भारत को न केवल आर्थिक बल्कि भू-राजनीतिक स्तर पर भी सक्रिय रणनीति अपनानी होगी।
इस पूरे परिदृश्य में यह स्पष्ट हो गया है कि भारत को न केवल मौजूदा संकट से उबरने की आवश्यकता है, बल्कि दीर्घकालिक ऊर्जा सुरक्षा नीति को फिर से मजबूत करने की जरूरत है।