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नेशनल डेस्क, श्रेया पांडेय ।
नेशनल हेराल्ड मामले में प्रवर्तन निदेशालय (ED) की कार्रवाई को लेकर अब न्यायपालिका ने गंभीर सवाल खड़े किए हैं। दिल्ली की एक विशेष अदालत ने हाल ही में हुई सुनवाई के दौरान यह स्पष्ट किया कि ED को यह साबित करना होगा कि उसने जो कदम उठाए हैं, वे कानून के दायरे में हैं और उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए किए गए हैं। अदालत ने विशेष रूप से राहुल गांधी और सोनिया गांधी के खिलाफ की गई जांच के संदर्भ में एजेंसी से जवाब मांगा है।
यह मामला वर्ष 2012 में शुरू हुआ था, जब बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने आरोप लगाया था कि कांग्रेस पार्टी ने अपने अख़बार ‘नेशनल हेराल्ड’ की संपत्ति को अवैध तरीके से एक निजी कंपनी ‘यंग इंडिया’ के माध्यम से अपने शीर्ष नेताओं के नियंत्रण में लेने का प्रयास किया। इस कंपनी में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की बड़ी हिस्सेदारी है। आरोप के अनुसार, इस सौदे के जरिए कांग्रेस नेताओं ने करीब 2,000 करोड़ रुपये की संपत्ति पर अधिकार पाने की कोशिश की।
प्रवर्तन निदेशालय ने इस आधार पर मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत जांच शुरू की और दोनों नेताओं से कई बार पूछताछ की। ED का कहना है कि यह सौदा वित्तीय अनियमितताओं से भरा हुआ था और इसमें सार्वजनिक पैसे का दुरुपयोग हुआ है। लेकिन कांग्रेस पार्टी लगातार यह दावा करती रही है कि यह मामला पूरी तरह से राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित है और किसी प्रकार की गड़बड़ी नहीं हुई है।
अब अदालत ने कहा है कि ED को यह स्पष्ट करना होगा कि वह किस आधार पर इस मामले को मनी लॉन्ड्रिंग का मामला मान रही है, जब तक कि कोई प्राथमिक अपराध (predicate offence) सिद्ध नहीं हो जाता। न्यायालय ने एजेंसी की प्रक्रिया और सबूतों की वैधता पर भी सवाल उठाया। यह बयान विपक्ष के लिए राहत की तरह देखा जा रहा है, जो पहले से ही इसे राजनीतिक उत्पीड़न का मामला बता रहा है।
इस घटनाक्रम ने एक बार फिर राजनीतिक हलकों में बहस को जन्म दिया है। कांग्रेस ने इसे लोकतंत्र और विपक्ष की स्वतंत्रता पर हमला करार दिया है, वहीं सत्तारूढ़ पार्टी इस मुद्दे को कानून की कार्रवाई के रूप में देख रही है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि ED अदालत को अपने कदमों को सही ठहराने के लिए क्या ठोस प्रमाण देती है।
कुल मिलाकर, नेशनल हेराल्ड मामला केवल एक कानूनी विवाद नहीं बल्कि एक बड़े राजनीतिक संघर्ष का रूप ले चुका है, जिसमें कानून, राजनीति और न्यायपालिका की भूमिका के बीच एक नाजुक संतुलन बनाना जरूरी हो गया है। आगामी सुनवाई में यह स्पष्ट हो पाएगा कि अदालत ED के तर्कों को किस हद तक स्वीकार करती है या उन्हें खारिज करती है।