
लोकल डेस्क, एन. के. सिंह।
घोर लापरवाही का खूनी अंजाम, अस्पताल सील! डॉक्टर गिरफ्तार!
पर क्या वापस आएगी एक निर्दोष की जान?
यह सिर्फ एक मौत नहीं, बिहार के मेडिकल माफिया पर उठा एक गंभीर सवाल है!
पूर्वी चंपारण: ढाका के एक छोटे से गाँव, पिपरा वाजिद, से एक ऐसी कहानी सामने आई, जिसने बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी। एक गरीब महिला, उषा देवी उम्र 30 वर्ष, को डॉक्टरों की घोर लापरवाही का खामियाजा अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। 14 महीने पहले एक निजी अस्पताल में हुए ऑपरेशन के दौरान उसके पेट में एक तौलिया छोड़ दिया गया था, जिसके दर्द और इंफेक्शन के कारण गुरुवार रात उसने ढाका के अनुमंडलीय अस्पताल में अंतिम सांस ली।
दर्द का अंतहीन सफर
उषा देवी का जीवन तब बदल गया जब वह गर्भवती हुईं। परिवार ने बेहतर इलाज की उम्मीद में ढाका के आजाद चौक स्थित नीडो अस्पताल में उनका ऑपरेशन कराने का फैसला किया। ऑपरेशन सफल रहा, या ऐसा ही उन्हें बताया गया, लेकिन इसके बाद उषा की तबीयत लगातार बिगड़ती गई। पेट में असहनीय दर्द, बुखार, और कमजोरी ने उसे बिस्तर पर ला दिया।
उषा के पति अमरेन सिंह और उनके परिवार ने हार नहीं मानी। उन्होंने उषा को लेकर ढाका, मोतिहारी, पटना, दिल्ली और यहाँ तक कि मुंबई के कई बड़े अस्पतालों में दिखाया। लाखों रुपये खर्च किए, अपनी सारी जमा-पूंजी लगा दी, लेकिन कोई भी डॉक्टर यह नहीं बता सका कि आखिर उषा को हो क्या रहा है। हर बार बस दर्द निवारक दवाइयाँ दी जाती रहीं, और बीमारी अंदर ही अंदर उसे खोखला करती रही।
मुंबई में खुला काला राज
जब सब जगह से निराशा हाथ लगी, तो उषा को मुंबई के एक अस्पताल ले जाया गया। वहाँ के डॉक्टरों ने जब सीटी स्कैन किया, तो जो सच्चाई सामने आई, उसने सबको हिला दिया। उषा के पेट में एक बड़ा तौलिया मौजूद था, जो धीरे-धीरे उसके अंगों को नुकसान पहुँचा रहा था और इंफेक्शन फैला रहा था। यह सिर्फ एक तौलिया नहीं था, बल्कि एक सबूत था, डॉक्टरों की लापरवाही का, एक महिला के जीवन के साथ किए गए खिलवाड़ का। यह खबर सुनकर अमरेन सिंह के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। 14 महीने का दर्द, भटकना और इलाज का खर्च, सब एक ही पल में स्पष्ट हो गया। उन्हें एहसास हुआ कि उनकी पत्नी को बीमारी ने नहीं, बल्कि इंसानियत को भूल चुके डॉक्टरों की लापरवाही ने मौत के मुँह में धकेला था।
न्याय की धीमी चाल और मौत का तांडव
इस भयानक सच्चाई के बाद, अमरेन सिंह ने ढाका थाने में नीडो अस्पताल की डॉक्टर बुसरा के खिलाफ मामला दर्ज कराया। मामला मीडिया में आया और जनता का गुस्सा फूट पड़ा। जिलाधिकारी सौरभ जोरवाल ने तुरंत जाँच का आदेश दिया। जाँच टीम ने डॉक्टर की लापरवाही की पुष्टि की, जिसके बाद 17 अगस्त को नीडो अस्पताल को सील कर दिया गया और डॉक्टर बुसरा को गिरफ्तार कर न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।
लेकिन यह कार्रवाई बहुत देर से हुई। जब तक सिस्टम हरकत में आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पेट में हुए भयंकर इंफेक्शन ने उषा के शरीर को पूरी तरह से जकड़ लिया था। गुरुवार रात, उषा देवी ने ढाका के अनुमंडलीय अस्पताल में अंतिम सांस ली। उसकी मौत ने यह साबित कर दिया कि न्याय भले ही मिल गया हो, लेकिन समय पर नहीं मिला।
व्यवस्था पर सवालिया निशान !!!
उषा की मौत ने कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह घटना सिर्फ एक मौत नहीं, बल्कि उन लाखों लोगों के भरोसे का खून है, जो इलाज के लिए निजी अस्पतालों का रुख करते हैं और जिनके लिए स्वास्थ्य सेवा एक क्रूर व्यापार बन चुकी है। जब सरकार स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़े-बड़े विकास और 'उपलब्धियों' की बात करती है, तो आखिर क्यों एक गरीब महिला को निजी अस्पताल की लापरवाही के बाद महीनों तक न्याय के लिए भटकना पड़ा? जब तक कार्रवाई हुई, तब तक उसकी जान चली गई। क्या यह सिर्फ एक लापरवाही थी या फिर जानबूझकर की गई हत्या?
यह तो स्पष्ट हो चुका है कि निजी अस्पतालों में काम कर रहे कई डॉक्टर पैसे कमाने की होड़ में इंसानियत की सारी सीमाएं लांघ रहे हैं। वे बिना किसी डर के मरीजों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं। इस तरह के नीम-हकीमों पर लगाम लगाने के लिए सिस्टम को और भी कठोर कदम उठाने की जरूरत है। उषा की आत्मा आज भी चीख-चीखकर पूछ रही है कि उसका क्या कसूर था? और इस प्रश्न का जवाब शायद ही किसी के पास हो।