
स्टेट डेस्क, नीतीश कुमार |
मोतिहारी बस हादसा: 11 घरों में 3 दिन तक नहीं जले चूल्हे, एक साथ चार चिताओं की आग से बिलख उठा पुरा गांव
पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में 15 अगस्त को हुई भयावह बस दुर्घटना ने पूर्वी चंपारण के चिरैया प्रखंड स्थित सरसावा गांव को गहरे शोक में डुबो दिया। इस हादसे में गांव के चार लोगों समेत 11 तीर्थयात्रियों की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि 26 से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। घायलों का इलाज अब भी बर्दवान में जारी है, लेकिन सरसावा गांव में मातम का मंजर शब्दों से परे है।
पांचवे दिन भी पसरा मातम, गांव में सन्नाटा;
हादसे के पांचवें दिन जब दैनिक भास्कर की टीम शिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर नदी किनारे बसे सरसावा गांव पहुंची, तो हर चेहरे पर गम और हर आंख नम नजर आई। गांव की गलियों में सन्नाटा पसरा था न बच्चों की किलकारियां सुनाई दीं, न ही महिलाओं की दिनचर्या की आवाजें। घर-घर में केवल खामोशी थी। तीन दिन तक किसी घर में चूल्हा नहीं जला। छोटे-छोटे बच्चे भूख से तड़पते रहे और उन्हें मजबूरी में बिस्किट व पानी देकर चुप कराया गया।
अंतिम संस्कार के बाद ही जले चूल्हे;
तीसरे दिन शवों का अंतिम संस्कार होने के बाद ही घरों में चूल्हे जले। फिर भी कई घर ऐसे हैं जहां कमाऊ सदस्य के चले जाने से अनाज का एक दाना भी नहीं बचा। गांव में कदम रखते ही माहौल भारी हो गया। जब टीम ने परिजनों से बात करनी चाही तो कई लोग कैमरे पर कुछ बोल तक नहीं पाए और फफक पड़े। महिलाएं सिर पकड़कर सिसक रही थीं। गलियों से लेकर खेत किनारे तक हर जगह रोने-बिलखने का ही दृश्य था।
'पूरे गांव की चीखें गूंज उठीं';
रूपकांति देवी, जिनके परिजन हादसे में गए, बताती हैं- “जैसे ही खबर मिली, दौड़ी चली आई। यहां आकर देखा तो हर तरफ मातम पसरा था। किसी के घर चूल्हा नहीं जला, कोई निवाला तक गले से नहीं उतार पाया। हालात शब्दों में बयान नहीं हो सकते।”
शांति देवी कहती हैं- “गांव के लोग दिन-रात एक जगह बैठकर बस शवों के आने का इंतजार कर रहे थे। जब चार शव एक साथ पहुंचे, तो पूरे गांव की चीखें गूंज उठीं। चार चिताओं की आग ने सबको भीतर तक हिला दिया।”
बच्चों से लेकर बुजुर्ग सदमे में;
जिन मासूमों ने पिता को खोया, वे बोलने की स्थिति में भी नहीं हैं। उन्हें बिस्किट से बहलाया जा रहा है। महिलाएं और बुजुर्ग बस यही पूछते हैं- “ऐसी गलती किसकी थी, जिसने पूरे गांव को उजाड़ दिया?”
60 वर्षीय भोलाराम सिंह की आंखें आंसुओं से सूख चुकी हैं। वे कहते हैं- “हमारे गांव से पहली बार इतना बड़ा जत्था तीर्थयात्रा पर गया था। किसने सोचा था कि वे शव बनकर लौटेंगे। यह सदमा गांव कभी नहीं भूल पाएगा।”
अनाथ बच्चों की खामोशी और विधवाओं का रोना गांव को तोड़ रहा है। अमरेश कुमार कहते हैं- “लोग खुद रो रहे हैं और दूसरों को ढांढस भी बंधा रहे हैं, लेकिन कोई किसी का दर्द कम नहीं कर पा रहा।”
प्रशासनिक स्तर पर मदद;
प्रशासन ने मृतकों के परिजनों को मुआवजा देने की घोषणा की है और घायलों का इलाज सरकार की देखरेख में चल रहा है। लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि केवल मुआवजा काफी नहीं है। अशोक सिंह का कहना है- “सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि श्रद्धालुओं के लिए चलने वाले वाहन पूरी तरह सुरक्षित हों। मालिकों और ड्राइवरों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि भविष्य में कोई परिवार इस तरह बर्बाद न हो।”
हरि पासवान, जिनकी पत्नी की मौत हुई, रोते हुए कहते हैं- “पल्लवी ने कहा था कि अपना ख्याल रखना, मैं बाबा धाम जा रही हूं। रात में बात हुई थी, उसने कहा था सुबह आ जाऊंगी।”
तीर्थयात्रा की बात से कांप उठेगा गांव;
आज सरसावा गांव शोकग्रस्त बस्ती में बदल चुका है। खेत-खलिहानों की चहल-पहल और बच्चों की हंसी गायब हो चुकी है। जिन घरों में कभी तीर्थयात्रा की तैयारी हुई थी, वहां अब मातम पसरा है। ग्रामीण कहते हैं कि यह सिर्फ एक सड़क हादसा नहीं, बल्कि पूरे गांव की खुशियां निगल लेने वाली त्रासदी है। आने वाले वर्षों तक जब भी तीर्थयात्रा की चर्चा होगी, यह काला अध्याय सरसावा की यादों में जीवित रहेगा।